गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

देहली 6 : भारत का आईना









निर्माता : राकेश ओमप्रकाश मेहरा, रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक : राकेश ओमप्रकाश मेहरा
संगीत . एआर रहमान
कलाकार : अभिषेक बच्चन, सोनम कपूर, ओम पुरी, दिव्या दत्ता, ऋषि कपूर, वहीदा रहमान, पवन मल्होत्रा, सुप्रिया पाठक, तनवी आजमी, केके रैना, अतुल कुलकर्णी
रेटिंग : 3/5
सबसे पहली बात ‍तो ये कि ‘देहली 6’ एक प्रेम कहानी नहीं है। यह दिल्ली 6 में रहने वाले लोगों की फिल्म है, जहाँ अलग-अलग धर्म के लोग सँकरी गलियों और पुराने घरों में साथ रहते हैं। ऐसा लगता है कि समय वहाँ अटक गया है या वे लोग समय के हिसाब से नहीं बदले और न ही उनकी सोच बदली। वैसे भारत के लगभग हर बड़े शहर में एक क्षेत्र ऐसा होता है, जिसे हम पुराना कहते हैं। दिल्ली 6 के हर किरदार की अपनी कहानी और सोच है, जिनके जरिये निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने भारतीय समाज का चित्रण करने की कोशिश की है। इस फिल्म को देखकर पिछले वर्ष प्रदर्शित श्याम बेनेगल की ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ की याद आना स्वाभाविक है। उस फिल्म में भी बेनेगल ने किरदारों के जरिये देश की नब्ज टटोली थी। वैसे हम शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के नाम पर भले ही तरक्की की बात करें, लेकिन अभी भी हमारे देश के ज्यादातर लोगों की सोच दिल्ली 6 में रहने वालों की तरह ही है। वे घर की महिलाओं को दोयम दर्जा देते हैं। बिट्टू (सोनम कपूर) कुछ बनना चाहती है, लेकिन उसके पिता (ओम पुरी) उसकी शादी कर देना चाहते हैं। बिट्टू अपनी ख्वाहिश पूरी करना चाहती है और उसे लगता है कि इंडियन आयडल उसके लिए आयडल है। जलेबी (दिव्या दत्ता) को अछूत माना जाता है। भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर (विजय राज) को उसके मंदिर जाने पर आपत्ति है, लेकिन वह उसके साथ रात बिताने के लिए तैयार है। दो भाइयों (ओम पुरी और पवन मल्होत्रा) के बीच नहीं पटती। वे घर के बीच दीवार बना लेते हैं, लेकिन उनकी पत्नियाँ ईंट खिसकाकर बातें करती हैं। कुछ समाज के ठेकेदार हैं, जो मंदिर-मस्जिद के नाम पर लोगों को भड़काते हैं और उनमें झगड़ा करवाते हैं। इसके अलावा एक ‘काला बंदर’ भी है, जो लोगों को मारता है, चीजें चुराता है। उसे किसी ने नहीं देखा, लेकिन उसके बारे में तरह-तरह की अफवाहें हैं। इन सब बातों का गवाह बनता है फिल्म का नायक रोशन (अभिषेक बच्चन), जो न्यूयॉर्क से दिल्ली अपनी बीमार दादी (वहीदा रहमान) को छोड़ने के लिए आया है। उसकी दादी अपने अंतिम दिन अपने पुश्तैनी घर में गुजारना चाहती है। उसे दिल्ली 6 के लोग किसी अजूबे से कम नहीं लगते। वह मोबाइल से उनके फोटो खींचता रहता है। परिस्थितियाँ कुछ ऐसी घटती हैं कि फिल्म के अंत में नायक वापस न्यूयॉर्क नहीं जाना चाहता और उसकी दादी अपने ही लोगों से खफा होकर लौटना चाहती है। राकेश मेहरा ने काला बंदर, संगीत और दिल्ली में चल रही रामलीला के जरिये अपने चरित्रों को जोड़कर फिल्म को आगे बढ़ाया है। संगीत का भी इसमें अच्छा इस्तेमाल किया गया है। कुछ दृश्य बेहतरीन हैं। जैसे ओम पुरी अपनी बेटी के होने वाले पति के पिता से दहेज के लिए बातें करते हैं और पीछे बैठे प्रेम चोपड़ा शेयर के मोलभाव करते हैं। अछूत जलेबी को रामलीला पंडाल के बाहर बैठकर सुनना पड़ती है। काले बंदर के नाम पर सब लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं। राकेश का निर्देशन अच्छा है, लेकिन लेखन में कुछ कमियाँ रह गईं। फिल्म का पहला हिस्सा सिर्फ चरित्रों को उभारने में ही चला गया। किरदार बातें करते रहते हैं, लेकिन फिल्म की कहानी बिलकुल भी आगे नहीं बढ़ती। फिल्म का अंत भी ज्यादातर लोगों को पसंद नहीं आएगा। अभिषेक बच्चन का किरदार भी कमजोर है, जबकि वे फिल्म के नायक हैं। ऊपर से उनके ज्यादातर संवाद अँग्रेजी में हैं और उनका उच्चारण भी उन्होंने विदेशी लहजे में किया है, जिसे समझने में कई लोगों को मुश्किल आ सकती है।
सोनम कपूर का अभिनय अच्छा है, लेकिन उनके चरित्र को उभरने का अवसर नहीं मिला। अभिषेक का अभिनय कहीं अच्छा है तो कहीं बुरा। ज्यादातर दृश्यों में उनके चेहरे पर एक जैसे ही भाव रहे हैं। पवन मल्होत्रा, विजय राज और दिव्या दत्ता ने अपने किरदारों को बेहतरीन तरीके से पेश किया है। ओम पुरी, ऋषि कपूर और वहीदा रहमान को सिर्फ स्टार वैल्यू बढ़ाने के लिए लिया गया है। ये भूमिकाएँ उनके जैसे कलाकारों के साथ न्याय नहीं करतीं। दिल्ली का सेट देखकर विश्वास करना मुश्किल होता है कि यह नकली है। एआर रहमान का संगीत ‘देहली 6’ की सबसे बड़ी खासियत है। मसकली, रहना तू, ये दिल्ली है मेरे यार गीत सुनने लायक हैं। गीतकार प्रसून जोशी का काम भी उल्लेखनीय है। तकनीकी रूप से फिल्म सशक्त है, लेकिन फिल्म के अधिकांश दृश्यों में अँधेरा नजर आता है।
कुछ कमियों के बावजूद इस शुद्ध देशी फिल्म को एक बार देखा जा सकता है।

हजारों ख्वाहिशें -मिर्जा गालिब

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले

मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले

हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले

हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले

जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले

खुदा के बासते पर्दा ना काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले

कहाँ मयखाने का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले

कोशिश करने वालों की-(हरिवंशराय बच्चन)

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।