सोमवार, 24 अगस्त 2009

सिकंदर : आतंकवाद और बचपन

Sikandar
निर्माता : सुधीर मिश्रा, बिग पिक्चर्स निर्देशक : पीयूष झा
कलाकार : परज़ाद दस्तूर, आयशा कपूर, संजय सूरी, आर. माधवन, अरुणोदय सिंह
कश्मीर में आतंकवाद को लेकर कई फिल्मों का निर्माण हुआ है, लेकिन पियूष झा की फिल्म ‘सिकंदर’ थोड़ी हटकर है। इसमें दिखाया गया है किस तरह आतंकवादी, नेता अपने घिनौने मकसद के लिए बच्चों का उपयोग करने में भी नहीं हिचकते। लेकिन कमजोर स्क्रीनप्ले, अभिनय और निर्देशन की वजह से ‘सिकंदर’ किसी तरह का प्रभाव नहीं छोड़ पाती। 14 वर्षीय सिकंदर (परजान दस्तूर) को स्कूल से लौटते समय रास्ते में पिस्तौल मिलती है, जिसे वह अपनी दोस्त नसरीन (आयशा कपूर) के मना करने के बावजूद रख लेता है। इस हथियार से वह अपने उन दोस्तों को डराता है, जो उसे परेशान करते हैं।
इसी बीच उसकी एक आतंकवादी से मुलाकात होती है, जो उसे बंदूक चलाना सिखाता है। एक दिन उसी आतंकवादी के साथ सिकंदर की झड़प होती है और वह उसे मार डालता है। इसके बाद सिकंदर मुसीबतों में फँसता जाता है और अंत में उसे समझ में आता है कि वह सेना, नेता और धर्म के ठेकेदारों का खिलौना बन गया है। फिल्म की कहानी अच्छी है, लेकिन इसे ‍ठीक से विकसित नहीं किया गया है। खासतौर पर स्क्रीनप्ले ठीक से नहीं लिखा गया है। सिकंदर के पास पिस्तौल है, ये बात उसके साथ पढ़ने वाले और उसे नापसंद करने वाले तीन लड़कों को पता रहती है, लेकिन वे अपने टीचर या पुलिस को क्यों नहीं बताते, जबकि सिकंदर रोज बंदूक लेकर स्कूल जाता है। नसरीन का अंत में हृदय परिवर्तन, अपने पिता की हत्या करना और आर्मी ऑफिसर द्वारा सिकंदर को अपना बदला लेने के लिए बंदूक देना तर्कसंगत नहीं है। संजय सूरी और माधवन की बातचीत वाले दृश्य बेहद उबाऊ हैं। निर्देशक के रूप में भी पियूष झा प्रभावित नहीं करते हैं। फिल्म की ‍गति उबाने की हद तक धीमी है और कई दृश्यों का दोहराव है। अंतिम 15 मिनटों में घटनाक्रम तेजी से घटते हैं, जब यह भेद खुलता है कि सिकंदर को मोहरा बनाया गया है, लेकिन तब तक दर्शक फिल्म में अपनी रूचि खो बैठता है। अपने कलाकारों से भी पियूष अच्छा काम नहीं ले पाए हैं। परजान दस्तूर और आयशा कपूर का अभिनय कुछ दृश्यों में अच्छा और कुछ में बुरा है। कई दृश्यों में उन्हें समझ ही नहीं आया कि चेहरे पर क्या भाव लाने हैं। ऐसा लगता है कि वे संवाद बोलने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे हों। माधवन और संजय सूरी बेहद अनुभवी और प्रतिभाशाली कलाकार हैं, लेकिन ‘सिकंदर’ में वे निराश करते हैं। फिल्म की फोटोग्राफी साधारण है। कुल मिलाकर ‍’सिकंदर’ निराश करती है।

मासूम मोहब्बत और दुविधाएं: लव आजकल

image
निर्देशक
इम्तियाज अली
कलाकार
सैफ अली खान
, दीपिका पादुकोण

इम्तियाज बॉलीवुड की अब तक की सबसे मासूम प्रेम-कहानियां बना रहे हैं और यह तब, जब उनके किरदारों के पास अभूतपूर्व खिलंदड़पना है. ओमकारा या कल हो न हो से कहीं अधिक लव आजकल के लिए सैफ को याद रखा जाएगा. यह ऐसी फिल्म है जिसे सैफ खास बना देते हैं और जो सैफ को और भी खास बना देती है. यह सिर्फ एक संयोग नहीं है कि इम्तियाज ने करीना और सैफ दोनों को उनके करियर की क़रीब क़रीब सर्वश्रेष्ठ फिल्में दी हैं. पिछले दशक की सतही प्रेमकथाओं से निकल कर हम भाग्यशाली समय में हैं कि ऐसी फिल्में देख पा रहे हैं. इम्तियाज के पास वास्तविक और मजेदार संवादों का ऐसा खजाना है कि आप हंसते और अभिभूत रहते हैं. दीपिका भी इतनी शोख और मुखर इससे पहले कभी नहीं दिखी. अगर आपने सोचा न था और जब वी मेट देखी है तो आपको पहले से ही पता होगा कि नतीजा क्या होगा? कहानी के कुछ हिस्से अलग परिस्थितियों में अलग ढंग से दोहराए जाते हैं और आप उन्हें हर बार पकड़ भी लेते हैं. साथ ही प्रीतम का मधुर संगीत है जिसके कुछ हिस्से इधर उधर से उठा लिए गए हैं. लेकिन तभी आप फिर से फिल्म में डूब जाते हैं क्योंकि कहानी वो तत्व नहीं है जो इम्तियाज की फिल्मों को इतना रोचक बनाती है. वह तत्व है उस कहानी को कहने का तरीका और उसके पीछे की ईमानदारी. आप जानते हैं कि मिलन होगा ही और सब कुछ अच्छा हो जाएगा, लेकिन आप नायक-नायिका के बीच होने वाले संवाद को सुनने को उत्सुक रहते हैं. वे जब पहली बार एक दूसरे को छूते हैं, तब से फिल्म के अंत तक उनके रिश्ते में बच्चों की सी मासूमियत है.
हम आम आदमी हैं. मैंगो पीपल..और हमें अमर नहीं होना. हमें इसी जन्म में मिलना है और साथ रहना है.यह मौजूदा दौर की प्रेम कहानी है जो अगले जन्म के वादों के भरोसे यह पूरा जन्म अलग अलग बिताने को कतई तैयार नहीं. वह हीर रांझा या रोमियो जूलियट की तरह अमर होने की बजाय साथ रहने को ज्यादा जरूरी समझता है. मोबाइल और इंटरनेट के युग में हमारे रिश्तों में जो दोस्ती, प्यार और कमिटमेंट के बीच की दुविधाएं हैं, यह उन दुविधाओं की फिल्म है. इसमें आपसी सहमति से होने वाले ब्रेक अप हैं, उनको मनाने के लिए दी गई पार्टियां भी और फिर दूरियों से बढ़ने वाला प्रेम भी जिसे आजकल की आपाधापी भरी जिन्दगी भी मैला नहीं कर पाई है. यह युवाओं की फिल्म है जिसमें गजब की मिठास है|