सोमवार, 24 अगस्त 2009

सिकंदर : आतंकवाद और बचपन

Sikandar
निर्माता : सुधीर मिश्रा, बिग पिक्चर्स निर्देशक : पीयूष झा
कलाकार : परज़ाद दस्तूर, आयशा कपूर, संजय सूरी, आर. माधवन, अरुणोदय सिंह
कश्मीर में आतंकवाद को लेकर कई फिल्मों का निर्माण हुआ है, लेकिन पियूष झा की फिल्म ‘सिकंदर’ थोड़ी हटकर है। इसमें दिखाया गया है किस तरह आतंकवादी, नेता अपने घिनौने मकसद के लिए बच्चों का उपयोग करने में भी नहीं हिचकते। लेकिन कमजोर स्क्रीनप्ले, अभिनय और निर्देशन की वजह से ‘सिकंदर’ किसी तरह का प्रभाव नहीं छोड़ पाती। 14 वर्षीय सिकंदर (परजान दस्तूर) को स्कूल से लौटते समय रास्ते में पिस्तौल मिलती है, जिसे वह अपनी दोस्त नसरीन (आयशा कपूर) के मना करने के बावजूद रख लेता है। इस हथियार से वह अपने उन दोस्तों को डराता है, जो उसे परेशान करते हैं।
इसी बीच उसकी एक आतंकवादी से मुलाकात होती है, जो उसे बंदूक चलाना सिखाता है। एक दिन उसी आतंकवादी के साथ सिकंदर की झड़प होती है और वह उसे मार डालता है। इसके बाद सिकंदर मुसीबतों में फँसता जाता है और अंत में उसे समझ में आता है कि वह सेना, नेता और धर्म के ठेकेदारों का खिलौना बन गया है। फिल्म की कहानी अच्छी है, लेकिन इसे ‍ठीक से विकसित नहीं किया गया है। खासतौर पर स्क्रीनप्ले ठीक से नहीं लिखा गया है। सिकंदर के पास पिस्तौल है, ये बात उसके साथ पढ़ने वाले और उसे नापसंद करने वाले तीन लड़कों को पता रहती है, लेकिन वे अपने टीचर या पुलिस को क्यों नहीं बताते, जबकि सिकंदर रोज बंदूक लेकर स्कूल जाता है। नसरीन का अंत में हृदय परिवर्तन, अपने पिता की हत्या करना और आर्मी ऑफिसर द्वारा सिकंदर को अपना बदला लेने के लिए बंदूक देना तर्कसंगत नहीं है। संजय सूरी और माधवन की बातचीत वाले दृश्य बेहद उबाऊ हैं। निर्देशक के रूप में भी पियूष झा प्रभावित नहीं करते हैं। फिल्म की ‍गति उबाने की हद तक धीमी है और कई दृश्यों का दोहराव है। अंतिम 15 मिनटों में घटनाक्रम तेजी से घटते हैं, जब यह भेद खुलता है कि सिकंदर को मोहरा बनाया गया है, लेकिन तब तक दर्शक फिल्म में अपनी रूचि खो बैठता है। अपने कलाकारों से भी पियूष अच्छा काम नहीं ले पाए हैं। परजान दस्तूर और आयशा कपूर का अभिनय कुछ दृश्यों में अच्छा और कुछ में बुरा है। कई दृश्यों में उन्हें समझ ही नहीं आया कि चेहरे पर क्या भाव लाने हैं। ऐसा लगता है कि वे संवाद बोलने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे हों। माधवन और संजय सूरी बेहद अनुभवी और प्रतिभाशाली कलाकार हैं, लेकिन ‘सिकंदर’ में वे निराश करते हैं। फिल्म की फोटोग्राफी साधारण है। कुल मिलाकर ‍’सिकंदर’ निराश करती है।

मासूम मोहब्बत और दुविधाएं: लव आजकल

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निर्देशक
इम्तियाज अली
कलाकार
सैफ अली खान
, दीपिका पादुकोण

इम्तियाज बॉलीवुड की अब तक की सबसे मासूम प्रेम-कहानियां बना रहे हैं और यह तब, जब उनके किरदारों के पास अभूतपूर्व खिलंदड़पना है. ओमकारा या कल हो न हो से कहीं अधिक लव आजकल के लिए सैफ को याद रखा जाएगा. यह ऐसी फिल्म है जिसे सैफ खास बना देते हैं और जो सैफ को और भी खास बना देती है. यह सिर्फ एक संयोग नहीं है कि इम्तियाज ने करीना और सैफ दोनों को उनके करियर की क़रीब क़रीब सर्वश्रेष्ठ फिल्में दी हैं. पिछले दशक की सतही प्रेमकथाओं से निकल कर हम भाग्यशाली समय में हैं कि ऐसी फिल्में देख पा रहे हैं. इम्तियाज के पास वास्तविक और मजेदार संवादों का ऐसा खजाना है कि आप हंसते और अभिभूत रहते हैं. दीपिका भी इतनी शोख और मुखर इससे पहले कभी नहीं दिखी. अगर आपने सोचा न था और जब वी मेट देखी है तो आपको पहले से ही पता होगा कि नतीजा क्या होगा? कहानी के कुछ हिस्से अलग परिस्थितियों में अलग ढंग से दोहराए जाते हैं और आप उन्हें हर बार पकड़ भी लेते हैं. साथ ही प्रीतम का मधुर संगीत है जिसके कुछ हिस्से इधर उधर से उठा लिए गए हैं. लेकिन तभी आप फिर से फिल्म में डूब जाते हैं क्योंकि कहानी वो तत्व नहीं है जो इम्तियाज की फिल्मों को इतना रोचक बनाती है. वह तत्व है उस कहानी को कहने का तरीका और उसके पीछे की ईमानदारी. आप जानते हैं कि मिलन होगा ही और सब कुछ अच्छा हो जाएगा, लेकिन आप नायक-नायिका के बीच होने वाले संवाद को सुनने को उत्सुक रहते हैं. वे जब पहली बार एक दूसरे को छूते हैं, तब से फिल्म के अंत तक उनके रिश्ते में बच्चों की सी मासूमियत है.
हम आम आदमी हैं. मैंगो पीपल..और हमें अमर नहीं होना. हमें इसी जन्म में मिलना है और साथ रहना है.यह मौजूदा दौर की प्रेम कहानी है जो अगले जन्म के वादों के भरोसे यह पूरा जन्म अलग अलग बिताने को कतई तैयार नहीं. वह हीर रांझा या रोमियो जूलियट की तरह अमर होने की बजाय साथ रहने को ज्यादा जरूरी समझता है. मोबाइल और इंटरनेट के युग में हमारे रिश्तों में जो दोस्ती, प्यार और कमिटमेंट के बीच की दुविधाएं हैं, यह उन दुविधाओं की फिल्म है. इसमें आपसी सहमति से होने वाले ब्रेक अप हैं, उनको मनाने के लिए दी गई पार्टियां भी और फिर दूरियों से बढ़ने वाला प्रेम भी जिसे आजकल की आपाधापी भरी जिन्दगी भी मैला नहीं कर पाई है. यह युवाओं की फिल्म है जिसमें गजब की मिठास है|

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

पत्रकारिता और साहित्य में गुणवत्ता के मापदंड खत्म


प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी का मानना है कि पत्रकारिता और साहित्य लेखन में गुणवत्ता के मापदंड लगभग खत्म होते जा रहे हैं। वर्तमान में जो लिखा जा रहा है, वह बाजार में बेचने के लिए है और बाजार में घटिया चीजें बिक रही हैं।

जोशी शुक्रवार को यहां प्रेस क्लब में खेल समीक्षक दिवंगत वीरेंद्रसिंह बग्गा स्मृति मेंसीमित होती खेल पत्रकारिताविषय पर व्याख्यान दे रहे थे। उन्होंने खेल पत्रकारिता के अलावा पत्रकारिता के व्यापक पहलुओं पर भी विचार रखे। उन्होंने कहा, जब कॉपी ही अच्छी नहीं लिखी जाएगी, तो पाठक कैसे अच्छा पढ़ पाएंगे। पहले पत्रकार अच्छा लिखते थे और पैसा पाते थे, अब पैसा पाने के लिए चाहे जैसा लिख देते हैं। विश्वकप में कवरेज के लिए जो चुनिंदा पत्रकार जाते हैं, उनका खर्चा भी कंपनियों द्वारा प्रायोजित होने लगा है। फैशन शो जैसे आयोजनों में बड़ी तादाद में रिपोर्टरों की मौजूदगी से लगता है, जैसे पत्रकारिता रैम्प तक सिमटकर रह गई।

चार ‘सी’ पर टिकी है पत्रकारिता -प्रभाष जोशी ने कहा कि आज की पत्रकारिता चारसीपर टिकी हुई है। पहला सिनेमा, दूसरा क्राइम, तीसरा क्रिकेट और चौथा कॉमेडी। सारे चैनल एक ही चीज को बार-बार दिखाते हैं, भले ही लोग उसे देखना पसंद नहीं कर रहे हों। रिपोर्टिग हो या साहित्य लेखन, जब तक प्रेरित होकर नहीं लिखा जाएगा, तब तक उसका कोई मतलब नहीं है। भाड़े के आदमी ने दुनियां जीती हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। पहले जैसी नामधारी प्रतिभाएं अब क्यों नहीं दिखाई देतीं?

एट बाय टेन तस्वीर : आउट ऑफ फोकस

Akshay

निर्माता : शैलेन्द्र सिंह
निर्देशक : नागेश कुकुनूर
संगीत : सलीम-सुलैमान, नीरज श्रीधर
कलाकार : अक्षय कुमार, आयशा टाकिया, शर्मिला टैगोर, जावेद जाफरी, गिरीश कर्नाड, अनंत महादेवन, बेंजामिन गिलानी
रेटिंग : 1/5



जिन लोगों के परिवार का कोई सदस्य गुम हो जाता है और जिसे ढूँढ पाने में वे नाकाम रहते हैं, उनमें से कुछ लोग ऐसे बाबाओं के पास जाते हैं जो उन्हें बताते हैं कि वो इनसान किस दिशा में है या कौन से शहर में है। कहा जाता है कि उनके पास ऐसी शक्ति (?) रहती है। ‘एट बाय टेन : तस्वीर’ के नायक जय (अक्षय कुमार) को भी ऐसी विशिष्ट शक्ति प्राप्त है। वह तस्वीर देखकर एकदम सटीक बता देता है कि फलाँ इनसान कहाँ है। लोगों को उस पर विश्वास है क्योंकि वह सब कुछ सही बताता है, लेकिन उसकी प्रेमिका, दोस्त, माँ पता नहीं उस पर क्यों अविश्वास करते हैं।

जय अपने पिता से नाराज है क्योंकि उनके व्यवसाय करने के तरीके उसे पसंद नहीं हैं। आखिर तक पता नहीं चलता कि वो तौर-तरीके क्या थे, जिससे दोनों के बीच अनबन थी। जय के पिता (बेंजामिन गिलानी) की जहाज पर से गिरने की वजह से मौत हो जाती है। मरने के ठीक पूर्व वे अपने भाई और दो दोस्तों के साथ फोटो उतरवाते हैं। ये फोटो खींचती हैं जय की माँ (शर्मिला टैगोर)।

अचानक एक पुलिस कम जासूस (जावेद जाफरी) टपक पड़ता है, जो जय को बताता है उसके पिता की हत्या हुई है। जय तस्वीर को देखता है। एक-एक कर उन आदमियों की आँखों में चला जाता है जो वहाँ पर मौजूद थे। उसे पता चल जाता है कि कौन लोग उसके पिता की मौत के कारण हैं। आधी से ज्यादा फिल्म तक तो गलत विश्लेषण करता रहता है और अंत में वह सही कातिल तक पहुँचता है।

Akshay-Sharmila

निर्देशक और लेखक नागेश कुकुनूर जब सही कातिल पर से परदा उठाते हैं तो आप लेखक की बेवकूफी पर सिवाय आश्चर्य के कुछ नहीं कर सकते। उस कातिल को सही ठहराने के लिए जो तर्क दिए गए हैं वे बेहद बेहूदा हैं। आश्चर्य होता है नागेश की समझ पर, उन लोगों की समझ पर जो इस फिल्म से जुड़े हुए हैं।

क्यों कातिल अपने पिता की हत्या करता है? वह क्यों अपनी माँ को चाकू मारता है? ऐसे सैकड़ों प्रश्न आपके दिमाग में उठेंगे, जिनका जवाब कहीं नहीं मिलता। अनेक गलतियों से स्क्रीनप्ले भरा हुआ है। कुछ पर गौर फरमाइए। जय की माँ को चाकू मारा गया है। वह जय को कातिल का नाम बताने के बजाय उसे एक बक्सा खोलकर तस्वीर देखने की बात कहती है। जय भी एक बार भी नहीं पूछता कि माँ आपको चाकू किसने मारा है। बताया गया है कि जय तस्वीर देखते समय वहीं पहुँच जाता है जहाँ तस्वीर उतारी गई है। यदि उसी समय कोई तस्वीर को नष्ट कर दे तो वह वर्तमान में वापस नहीं आ सकता है। फिल्म के अंत में कातिल तस्वीर को जला देता है और फिर भी जय वर्तमान में लौट आता है। कैसे? कोई जवाब नहीं है।

नागेश कुकुनूर की कहानी का मूल विचार अच्छा था, लेकिन उसका वे सही तरीके से निर्वाह नहीं कर सके और ढेर सारी अविश्वसनीय गलतियाँ कर बैठे। निर्देशक के रूप में भी वे प्रभावित नहीं कर पाए। ‘बॉम्बे टू बैंकॉक’ के बाद उन्होंने लगातार दूसरी घटिया फिल्म दी है, इससे साबित होता है कि कमर्शियल फिल्म बनाना उनके बस की बात नहीं है।

Akki-Ayesha

अक्षय कुमार के चेहरे के भाव पूरी फिल्म में एक जैसे रहे, चाहे दृश्य रोमांटिक हो या भावनात्मक। आयशा टाकिया को करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। जावेद जाफरी कहीं हँसाते हैं तो कहीं खिजाते हैं। गिरीश कर्नाड, शर्मिला टैगोर, अनंत महादेवन, बेंजामिन गिलानी और रुशाद राणा ने अपने किरदार अच्छे से निभाए। विकास शिवरमण ने कनाडा और दक्षिण अफ्रीका को बड़ी खूबसूरती के साथ स्क्रीन पर पेश किया।

कुल मिलाकर ‘एट बाय टेन : तस्वीर’ बेहद घटिया फिल्म है, जिसे अक्षय कुमार के प्रशंसक भी पसंद नहीं करेंगे।

मंगलवार, 3 मार्च 2009

सुमित्रानंदन पन्त (कविता)

वसंत
चंचल पग दीपशिखा के धर
गृह, मग़, वन में आया वसंत
सुलगा फागुन का सूनापन
सौन्दर्य शिखाओं में अनंत
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर उर में मधुर दाह
आया वसंत, भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह
पल्लव पल्लव में नवल रूधिर
पत्रों में मांसल रंग खिला
आया नीली पीली लौ से
पुष्पों के चित्रित दीप जला
अधरों की लाली से चुपके
कोमल गुलाब से गाल लजा
आया पंखड़ियों को काले- पीले
धब्बों से सहज सजा
कलि के पलकों में मिलन स्वप्न अ
लि के अंतर में प्रणय गान
लेकर आया प्रेमी वसंत
आकुल जड़-चेतन स्नेह प्राण


हर पल की ख़बर ! न्यूज चैनलों में भारी पड़ता चौबीस घंटा

न्यूज चैनलों में जब चौबीस घंटे न्यूज दिखाने की होड़ शुरू हुई थी तो बड़ा शोर शराबा हुआ था पल-पल की ख़बर! हरपल की ख़बर ! पर समय बीतने के साथ ये चौबीस घंटे इनपर अब भारी पड़ने लगे हैं। कहाँ से लायें इतनी ख़बर फ़िरशुरू हुआ ख़बरों को बार-बार, लगातार दिखाने का दौड़ पर इससे जो नया है वही न्यूज है वाला फंदा ही बदल गया।सुबह से शाम तक एक ही न्यूज जब तक कि कुछ नया हाथ लग जाए इसके बाद न्यूज को खींचने का दौड़ शुरू हुआ।समाचार की दुनिया में जिसे फॉलोअप कहा जाता है। जैसे सुनीता विलियम्स ने अन्तरिक्ष में जा कर न्यूज बनने लायककाम किया(मैं सुनीता की उपलब्धि को कम नहीं कर रहा हूँ) तो उनकी सारी पसंद नापसंद भी न्यूज बन गया खाने मेंक्या पसंद है, नहीं है आदि-आदि। इनके सारे संबंधियों को पकड़ कर न्यूज बनाया जाने लगा। अभी एक मई को महाबलीखली की घर वापसी पर जी न्यूज ने तकरीबन एक घंटे का कार्यक्रम दिखाया गया उनके पैट्रिक गाँव में उनका मकान बन रहा है। अब खली न्यूज हैं तो उनकाबनता हा माकन भी न्यूज हैऔर उसमें काम करने वाले मिस्त्री भी न्यूज है। खली के दोस्त भी न्यूज हैं और बचपन में खली लोटा लेकर कहाँ फारिग होने जातेथे शायद ये भी न्यूज है। पता नहीं इसे क्यूं छोड़ दिया उनलोगों ने। अभी एकाध सप्ताह पहले आजतक तो हाथ धोकर खली के पीछे पड़ गया था उनकी हारकी ख़बर भी उसी शान और जज्बे के साथ दिखायी जा रही थी जिस तरह क्रिकेट में भारत की जीत को दिखाया जाता है। इधर खुछ दिनों से टाईम पास करनेके लिए आई पी एल नाम का झुनझुना हाथ लग गया है। वो भी अधनंगी लड़कियों के लटकों-झटकों वाला बिकाऊ झुनझुना जब जी में आया बैठ गए झुनझुनालेकर टाईम काटने के लिए ये चीजें भी जब नाकाफी रहीं तो मनोरंजन चैनलों की चीजें उठाकर पडोसने लगे कभी धारावाहिकों की कहानी तो कभी लाफ्टरशोज के फुटेज धारावाहिकों से डर कर यदि आपने न्यूज चैनल ऑन किया है तो यहाँ भी आपकी खैर नहीं है। सास बहू और साजिश को वहां नहीं झेला है तोयहाँ झेलिये बच कर कहाँ जायेंगे। दाऊद के पीछे पड़े तो उसे इतनी बार दिखाया कि अँधा भी दाऊद को पहचान ले। कभी कभी तो ये न्यूज चैनल वाले ऐसाखौफ पैदा कर देते है कि पूछिए मत। प्रलय होने वाला है। सृष्टि ख़त्म होने वाली है। अरे भाई, सृष्टि जब ख़त्म होगी तब होगी , अभी से लोगों को क्यों हलकानकर रहे हो भूत प्रेतों वाली चीजें तो अब न्यूज चैनलों का अहम् हिस्सा बन गयी हैं और प्रस्तुतकर्ता भी पता नहीं कहाँ से ढूंढ कर लाते हैं। कहानी से पहलेइन्हें देख कर ही डर लगता है। चैन से सोना है तो जाग जाओ अरे भइया , जब जग ही गए तो सोयेंगे भूत या कत्ल देख कर? बलात्कार की खबर इतनेउत्साह से दिखाते हैं कि क्या कहें। और हाँ, सबसे अद्भुत तो इनका ब्रेकिंग न्यूज होता है. ब्रेकिंग न्यूज- सोनिया गाँधी की नींद खुल गयी. ब्रेकिंग न्यूज- फलानेटीम की मीटिंग ख़त्म हुई. ब्रेकिंग न्यूज- राहुल गाँधी आज टहलने निकले . किसी दिन आप देखेंगे - बकरी ने बच्चा दिया - ब्रेकिंग न्यूज . ब्रेकिंग न्यूज की एकऔर खासियत है- यह कई चैनलों पर एक साथ दिखाया जाता है. एक और बड़ी मजेदार चीज होती है इन न्यूज चैनलों में. किसी मुद्दे पर बहस के लिए अतिथिबुलाये जाते हैं. अपेक्षा ये रहती है कि अतिथि बोलेंगे और प्रस्तुतकर्ता समन्वय का काम करेंगे परन्तु अतिथि बोलने के लिए मुंह खोलते ही हैं कि प्रस्तुतकर्ताबोल पड़ते हैं अतिथि को बीच में ही चुप करा दिया जाता है. और संयोग से बहस किसी नतीजे पर पहुँचता प्रतीत होता है तो इनका टाईम ही ख़त्म हो जाता हैऔर अधिकांश बहस बिना किसी तीजे पर पहुंचे ही ख़त्म हो जाती है. आशा ये की जाती थी कि न्यूज चैनलों की बढती तादाद से पैदा हुई स्पर्धा से इनमेंगुणात्मक सुधार होगा, कुछ अच्छी चीजें देखने सुनने को मिलेंगी पर हुआ इसका उल्टा . न्यूज चैनलों का स्तर दिन-बी-दिन गिरता ही चला गया . आज ये दशाहो गई है न्यूज चैनलों की लेकिन क्या करे मीडिया |

सोमवार, 2 मार्च 2009

स्वात घाटी में टीवी पत्रकार की हत्या


पाकिस्तान के स्वात घाटी में जियो टीवी चैनल के पत्रकार मूसा खान खेल की कल शाम हत्या कर दी गई. 28 वर्षीय युवा पत्रकार मूसा खान जियो टीवी चैनल के लिए काम करते थे. उन्हें स्वात के मट्टा इलाक़े में मारा गया जिस पर तालेबान का काफ़ी प्रभाव है. पत्रकार मूसा ख़ान खेल को पहले अग़वा किया गया और बाद में उनका गोलियों से छलनी शव मिला. गोली मारने के बाद मूसा खान खेल का निर्ममता से सर भी कलम कर दिया गया था. वह स्वात में सरकार और तालिबान के बीच हुए समझौते की ख़बर कवर कर रहे थे.शक जताया जा रहा है कि पत्रकार की हत्या के पीछे तालिबान का हाथ है. अभी तक किसी भी संगठन ने इस कार्यवाई की ज़िम्मेदारी नहीं ली है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी ने टीवी पत्रकार की हत्या पर दुःख और अफसोस जताया है. पाकिस्तान के सूचना और प्रसारण मंत्री शेरी खान ने इसे पत्रकारिता पर हमला बताया. टीवी पत्रकार के निर्ममता पूर्वक हत्या का पाकिस्तान के पत्रकारिता जगत द्वारा पुरजोर विरोध किया जा रहा है. पत्रकारों द्वारा आज पूरे पाकिस्तान में प्रदर्शन और विरोध किया जाएगा. तीन महीने के भीतर स्वात घाटी में किसी पत्रकार की हत्या की यह दूसरी घटना है. वैसे अबतक स्वात में कुल 15 पत्रकार अपनी जान गवा चुके है

आईआईएमसी के छात्रों का मिलन समारोह


देश के अग्रणी मीडिया संस्थान इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मॉस कम्युनिकेशन में कल का दिन पूर्व छात्रों के मिलन समारोह का था. अलग - अलग मीडिया संस्थानों में काम करने वाले आईआईएमसी के पूर्व छात्र कल यहाँ इकठ्ठा हुए और संस्थान में बिताये अपने पुराने दिनों को याद किया. आईआईएमसी में हर साल यह मिलन समारोह आयोजित किया जाता है और इसे आईआईएमसी का हिन्दी पत्रकारिता विभाग आयोजित करता है. इस मौके पर संस्थान के कई पूर्व फैकल्टी मेंबर भी उपस्थित थे जिनमें प्रमुख रूप से सुभाष धुलिया, प्रदीप माथुर, वर्तिका नंदा थे. पूर्व आईआईएमसी छात्रों में कई बड़े नाम भी थे. न्यूज़ 24 के न्यूज़ डायरेक्टर सुप्रिय प्रसाद , आजतक के राणा यशवंत, वरिष्ठ पत्रकार शम्भुनाथ सिंह जैसे पत्रकारिता के बड़े चेहरे भी समारोह में मौजूद थे. इनके अलावा लगभग 400 पूर्व छात्रों ने इस कार्यक्रम में भाग लिया. खास बात यह रही कि इस मौके पर 1988 बैच से लेकर 2008 बैच तक के आईआईएमसी के छात्र शामिल थे. इस मौके पर आईआईएमसी में बतौर सह प्राध्यापक कार्यरत आनंद प्रधान ने कहा कि " आईआईएमसी में पूर्व छात्रों का मिलन समारोह का यह सिलसिला आगे भी चलता रहेगा और इस क्रम को हम टूटने नही देंगें. यह एक परिवार है और परिवार के बीच संवाद के लिए हम ऐसे कार्यक्रम आगे भी आयोजित करते रहेंगे.”|

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

देहली 6 : भारत का आईना









निर्माता : राकेश ओमप्रकाश मेहरा, रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक : राकेश ओमप्रकाश मेहरा
संगीत . एआर रहमान
कलाकार : अभिषेक बच्चन, सोनम कपूर, ओम पुरी, दिव्या दत्ता, ऋषि कपूर, वहीदा रहमान, पवन मल्होत्रा, सुप्रिया पाठक, तनवी आजमी, केके रैना, अतुल कुलकर्णी
रेटिंग : 3/5
सबसे पहली बात ‍तो ये कि ‘देहली 6’ एक प्रेम कहानी नहीं है। यह दिल्ली 6 में रहने वाले लोगों की फिल्म है, जहाँ अलग-अलग धर्म के लोग सँकरी गलियों और पुराने घरों में साथ रहते हैं। ऐसा लगता है कि समय वहाँ अटक गया है या वे लोग समय के हिसाब से नहीं बदले और न ही उनकी सोच बदली। वैसे भारत के लगभग हर बड़े शहर में एक क्षेत्र ऐसा होता है, जिसे हम पुराना कहते हैं। दिल्ली 6 के हर किरदार की अपनी कहानी और सोच है, जिनके जरिये निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने भारतीय समाज का चित्रण करने की कोशिश की है। इस फिल्म को देखकर पिछले वर्ष प्रदर्शित श्याम बेनेगल की ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ की याद आना स्वाभाविक है। उस फिल्म में भी बेनेगल ने किरदारों के जरिये देश की नब्ज टटोली थी। वैसे हम शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के नाम पर भले ही तरक्की की बात करें, लेकिन अभी भी हमारे देश के ज्यादातर लोगों की सोच दिल्ली 6 में रहने वालों की तरह ही है। वे घर की महिलाओं को दोयम दर्जा देते हैं। बिट्टू (सोनम कपूर) कुछ बनना चाहती है, लेकिन उसके पिता (ओम पुरी) उसकी शादी कर देना चाहते हैं। बिट्टू अपनी ख्वाहिश पूरी करना चाहती है और उसे लगता है कि इंडियन आयडल उसके लिए आयडल है। जलेबी (दिव्या दत्ता) को अछूत माना जाता है। भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर (विजय राज) को उसके मंदिर जाने पर आपत्ति है, लेकिन वह उसके साथ रात बिताने के लिए तैयार है। दो भाइयों (ओम पुरी और पवन मल्होत्रा) के बीच नहीं पटती। वे घर के बीच दीवार बना लेते हैं, लेकिन उनकी पत्नियाँ ईंट खिसकाकर बातें करती हैं। कुछ समाज के ठेकेदार हैं, जो मंदिर-मस्जिद के नाम पर लोगों को भड़काते हैं और उनमें झगड़ा करवाते हैं। इसके अलावा एक ‘काला बंदर’ भी है, जो लोगों को मारता है, चीजें चुराता है। उसे किसी ने नहीं देखा, लेकिन उसके बारे में तरह-तरह की अफवाहें हैं। इन सब बातों का गवाह बनता है फिल्म का नायक रोशन (अभिषेक बच्चन), जो न्यूयॉर्क से दिल्ली अपनी बीमार दादी (वहीदा रहमान) को छोड़ने के लिए आया है। उसकी दादी अपने अंतिम दिन अपने पुश्तैनी घर में गुजारना चाहती है। उसे दिल्ली 6 के लोग किसी अजूबे से कम नहीं लगते। वह मोबाइल से उनके फोटो खींचता रहता है। परिस्थितियाँ कुछ ऐसी घटती हैं कि फिल्म के अंत में नायक वापस न्यूयॉर्क नहीं जाना चाहता और उसकी दादी अपने ही लोगों से खफा होकर लौटना चाहती है। राकेश मेहरा ने काला बंदर, संगीत और दिल्ली में चल रही रामलीला के जरिये अपने चरित्रों को जोड़कर फिल्म को आगे बढ़ाया है। संगीत का भी इसमें अच्छा इस्तेमाल किया गया है। कुछ दृश्य बेहतरीन हैं। जैसे ओम पुरी अपनी बेटी के होने वाले पति के पिता से दहेज के लिए बातें करते हैं और पीछे बैठे प्रेम चोपड़ा शेयर के मोलभाव करते हैं। अछूत जलेबी को रामलीला पंडाल के बाहर बैठकर सुनना पड़ती है। काले बंदर के नाम पर सब लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं। राकेश का निर्देशन अच्छा है, लेकिन लेखन में कुछ कमियाँ रह गईं। फिल्म का पहला हिस्सा सिर्फ चरित्रों को उभारने में ही चला गया। किरदार बातें करते रहते हैं, लेकिन फिल्म की कहानी बिलकुल भी आगे नहीं बढ़ती। फिल्म का अंत भी ज्यादातर लोगों को पसंद नहीं आएगा। अभिषेक बच्चन का किरदार भी कमजोर है, जबकि वे फिल्म के नायक हैं। ऊपर से उनके ज्यादातर संवाद अँग्रेजी में हैं और उनका उच्चारण भी उन्होंने विदेशी लहजे में किया है, जिसे समझने में कई लोगों को मुश्किल आ सकती है।
सोनम कपूर का अभिनय अच्छा है, लेकिन उनके चरित्र को उभरने का अवसर नहीं मिला। अभिषेक का अभिनय कहीं अच्छा है तो कहीं बुरा। ज्यादातर दृश्यों में उनके चेहरे पर एक जैसे ही भाव रहे हैं। पवन मल्होत्रा, विजय राज और दिव्या दत्ता ने अपने किरदारों को बेहतरीन तरीके से पेश किया है। ओम पुरी, ऋषि कपूर और वहीदा रहमान को सिर्फ स्टार वैल्यू बढ़ाने के लिए लिया गया है। ये भूमिकाएँ उनके जैसे कलाकारों के साथ न्याय नहीं करतीं। दिल्ली का सेट देखकर विश्वास करना मुश्किल होता है कि यह नकली है। एआर रहमान का संगीत ‘देहली 6’ की सबसे बड़ी खासियत है। मसकली, रहना तू, ये दिल्ली है मेरे यार गीत सुनने लायक हैं। गीतकार प्रसून जोशी का काम भी उल्लेखनीय है। तकनीकी रूप से फिल्म सशक्त है, लेकिन फिल्म के अधिकांश दृश्यों में अँधेरा नजर आता है।
कुछ कमियों के बावजूद इस शुद्ध देशी फिल्म को एक बार देखा जा सकता है।

हजारों ख्वाहिशें -मिर्जा गालिब

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले

मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले

हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले

हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले

जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले

खुदा के बासते पर्दा ना काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले

कहाँ मयखाने का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले

कोशिश करने वालों की-(हरिवंशराय बच्चन)

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

अमेरिका के साथ ऐटमी करार

चुनाव चाहने वाले कौन


अमेरिका के साथ ऐटमी करार पर कांग्रेस और सीपीएम के बीच चल रही तनातनी से घबराए जो लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या यह देश मध्यावधि चुनाव झेलने को तैयार है, उन्हें राम मनोहर लोहिया का ये कथन शायद याद नहीं कि ज़िंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं। सच है कि लोहिया ने ये बात तब कही थी जब उनको लगता था कि केंद्र में कांग्रेस का स्थायित्व यथास्थिति का पोषक है और बदलाव का रास्ता रोक रहा है। आज हालात बदले हुए हैं। बीते पंद्रह साल में केंद्र हो या राज्य, सरकारें पत्तों की तरह गिरती रही हैं। चुनाव जनता पर एक बोझ की तरह हैं। लेकिन क्या इसीलिए लेफ़्ट फ्रंट को उस परमाणु करार का विरोध छोड़ कर कांग्रेस के सामने घुटने टेक देने चाहिए जो उसे देश के साथ विश्वासघात लग रहा है? अगर लेफ़्ट को लगता है कि यूपीए सरकार एक देशविरोधी फैसला कर रही है तो हर हाल में उसे चुनाव का डर छोड़कर सरकार से समर्थन वापस ले लेना चाहिए। इसी तरह अगर कांग्रेस को लगता है कि परमाणु करार एक ऐसा बड़ा मसला है जिस पर किसी तरह की वापसी मुमकिन नहीं तो उसे भी हक़ है कि वह अपनी सरकार को दांव पर लगा दे। बल्कि यह एक ज्यादा नैतिक कदम होगा कि सिर्फ सरकार बचाने और चलाने की ख़ातिर आप अपनी नीतियों से समझौता न करें। आखिर ऐसा आखिरी मौका न जाने कब आया होगा जब किसी सरकार ने किसी ठोस मसले पर सत्ता का मोह छोड़ा होगा। सिर्फ पांच साल सरकार चला देने भर के लिए सिद्धांतहीन राजनीति की आड़ लेंगे तो प्रकाश करात और सोनिया गांधी दोनों जनता के साथ कहीं ज्यादा बड़ा विश्वासघात कर रहे होंगे। ऐसी सिद्धांतहीन गठजोड सरकार ठीक इसके पहले केंद्र में पांच साल पूरे भी कर चुकी है। जनता ने इस स्थायित्व का उसे जो पुरस्कार दिया, वह अभी पुराना नहीं पड़ा है। इसमें संदेह नहीं कि परमाणु करार पर अगर लेफ्‍ट फ्रंट और यूपीए में कोई आम राय हो गई होती तो इससे अच्छा कुछ नहीं होता। लेकिन ऐसी आम राय बनाए बिना यूपीए अमेरिका से ऐटमी करार को आगे बढाता रहे और लेफ्ट सरकार का समर्थन करता रहे, ये मौकापरस्त राजनीति की मिसाल भर होगा जो कांग्रेस और सीपीएम दोनों को कठघरे में खड़ा करेगा। खतरा यही है कि सारे टकरावों के बावजूद दोनों एक-दूसरे को सहने की सहमति के शिकार न हो जाएं। लेकिन किसी भी लोकतंत्र प्रेमी के गले ये तर्क नहीं उतरेगा कि मध्यावधि चुनाव टालने की मजबूरी में दो दल एक-दूसरे के बिल्कुल विरुद्ध होते हुए एक-दूसरे का साथ देते रहें। जनता चुनावों का बोझ फिर भी उठा लेगी, अनैतिक और सिद्धांतविहीन गठबंधन का बोझ उठाना उसके लिए कहीं ज्यादा अहितकर होगा।