शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

अमेरिका के साथ ऐटमी करार

चुनाव चाहने वाले कौन


अमेरिका के साथ ऐटमी करार पर कांग्रेस और सीपीएम के बीच चल रही तनातनी से घबराए जो लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या यह देश मध्यावधि चुनाव झेलने को तैयार है, उन्हें राम मनोहर लोहिया का ये कथन शायद याद नहीं कि ज़िंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं। सच है कि लोहिया ने ये बात तब कही थी जब उनको लगता था कि केंद्र में कांग्रेस का स्थायित्व यथास्थिति का पोषक है और बदलाव का रास्ता रोक रहा है। आज हालात बदले हुए हैं। बीते पंद्रह साल में केंद्र हो या राज्य, सरकारें पत्तों की तरह गिरती रही हैं। चुनाव जनता पर एक बोझ की तरह हैं। लेकिन क्या इसीलिए लेफ़्ट फ्रंट को उस परमाणु करार का विरोध छोड़ कर कांग्रेस के सामने घुटने टेक देने चाहिए जो उसे देश के साथ विश्वासघात लग रहा है? अगर लेफ़्ट को लगता है कि यूपीए सरकार एक देशविरोधी फैसला कर रही है तो हर हाल में उसे चुनाव का डर छोड़कर सरकार से समर्थन वापस ले लेना चाहिए। इसी तरह अगर कांग्रेस को लगता है कि परमाणु करार एक ऐसा बड़ा मसला है जिस पर किसी तरह की वापसी मुमकिन नहीं तो उसे भी हक़ है कि वह अपनी सरकार को दांव पर लगा दे। बल्कि यह एक ज्यादा नैतिक कदम होगा कि सिर्फ सरकार बचाने और चलाने की ख़ातिर आप अपनी नीतियों से समझौता न करें। आखिर ऐसा आखिरी मौका न जाने कब आया होगा जब किसी सरकार ने किसी ठोस मसले पर सत्ता का मोह छोड़ा होगा। सिर्फ पांच साल सरकार चला देने भर के लिए सिद्धांतहीन राजनीति की आड़ लेंगे तो प्रकाश करात और सोनिया गांधी दोनों जनता के साथ कहीं ज्यादा बड़ा विश्वासघात कर रहे होंगे। ऐसी सिद्धांतहीन गठजोड सरकार ठीक इसके पहले केंद्र में पांच साल पूरे भी कर चुकी है। जनता ने इस स्थायित्व का उसे जो पुरस्कार दिया, वह अभी पुराना नहीं पड़ा है। इसमें संदेह नहीं कि परमाणु करार पर अगर लेफ्‍ट फ्रंट और यूपीए में कोई आम राय हो गई होती तो इससे अच्छा कुछ नहीं होता। लेकिन ऐसी आम राय बनाए बिना यूपीए अमेरिका से ऐटमी करार को आगे बढाता रहे और लेफ्ट सरकार का समर्थन करता रहे, ये मौकापरस्त राजनीति की मिसाल भर होगा जो कांग्रेस और सीपीएम दोनों को कठघरे में खड़ा करेगा। खतरा यही है कि सारे टकरावों के बावजूद दोनों एक-दूसरे को सहने की सहमति के शिकार न हो जाएं। लेकिन किसी भी लोकतंत्र प्रेमी के गले ये तर्क नहीं उतरेगा कि मध्यावधि चुनाव टालने की मजबूरी में दो दल एक-दूसरे के बिल्कुल विरुद्ध होते हुए एक-दूसरे का साथ देते रहें। जनता चुनावों का बोझ फिर भी उठा लेगी, अनैतिक और सिद्धांतविहीन गठबंधन का बोझ उठाना उसके लिए कहीं ज्यादा अहितकर होगा।

1 टिप्पणी:

Satish Chandra Satyarthi ने कहा…

काफी गहरी और सही समीक्षा की आपने दिलीप जी.
लेखन शैली भी जोरदार है. आगे भी आपसे अच्छे लेखों का इंतजार रहेगा.
शुभकामनाएं
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